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भारत में ट्रांसजेंडर एवं उनके अधिकार

LGBTQIA+ कौन है?

चर्चा में क्यों?
हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने ट्रांसजेंडर अधिकारों पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। इसका उद्देश्य था;

  • प्रणालीगत भेदभाव को दूर करना,
  • संस्थागत सहयोग को मज़बूत करना,
  • और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करना।

भारतीय समाज की विविधता और सांस्कृतिक बहुलता में लैंगिक विविधता हमेशा से विद्यमान रही है। किंतु लंबे समय तक ट्रांसजेंडर समुदाय को सामाजिक, आर्थिक और कानूनी दृष्टि से हाशिये पर रखा गया। हाल के दशकों में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका ने मिलकर उनके अधिकारों की रक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। फिर भी, सामाजिक कलंक, सीमांतकरण और अवसरों की कमी अब भी मौजूद है। इस लेख का उद्देश्य भारत में ट्रांसजेंडर अधिकारों की स्थिति, संवैधानिक और कानूनी ढाँचे, नीतिगत पहल, चुनौतियाँ और आगे की राह का विश्लेषण करना है।

ट्रांसजेंडर कौन है?

  • उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के अनुसार, ट्रांसजेंडर अथवा उभयलिंगी व्यक्ति वह होता है जिसकी लैंगिक पहचान जन्म के समय निर्धारित लैंगिक विशेषताओं से सुमेलित नहीं होती है।
  • इसमें इंटरसेक्स भिन्नता वाले ट्रांस-व्यक्ति, जेंडर-क्वीर और सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता वाले व्यक्ति  जैसे किन्नर, हिजड़ा, आरावानी और जोगता शामिल हैं।
  • LGBTQIA+ का हिस्सा: ट्रांसजेंडर व्यक्ति LGBTQIA+ समुदाय का हिस्सा हैं, जिन्हें संक्षिप्त नाम में ‘T’ द्वारा दर्शाया गया है।
    • LGBTQIA+ एक संक्षिप्ति (शब्दों के प्रथम अक्षरों से बना शब्द) है जो लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स और एसेक्सुअल का प्रतिनिधित्व करता है।
    • ‘+’ उन अनेक अन्य अस्मिताओं को दर्शाता है जिनकी पहचान प्रकिया और अवबोधन वर्तमान में जारी है। इस संक्षिप्ति में निरंतर परिवर्तन जारी है और इसमें नॉन-बाइनरी और पैनसेक्सुअल जैसे अन्य पद भी शामिल किये जा सकते हैं।

पृष्ठभूमि

भारत में हिजड़ा और किन्नर समुदाय का उल्लेख प्राचीन साहित्य और शास्त्रों से मिलता है। महाभारत में शिखंडी का उदाहरण हो या फिर मुगलकाल में हिजड़ों की प्रशासनिक भूमिकाएँ इनकी सामाजिक पहचान कभी पूरी तरह नकारात्मक नहीं रही।
औपनिवेशिक काल में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, 1871 ने इन्हें ‘अपराधी’ के रूप में चिह्नित किया, जिससे इनकी सामाजिक स्थिति और अधिक बिगड़ गई। स्वतंत्रता के बाद भी लंबे समय तक इनके अधिकारों की स्पष्ट सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हुई।

संवैधानिक और कानूनी ढाँचा

() नालसा बनाम भारत संघ, 2014

सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडरों को थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता दी। अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव-निषेध), 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 21 (जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत इनके अधिकारों को सुनिश्चित किया गया। यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका की ऐतिहासिक उपलब्धि माना जाता है।

() ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019

यह अधिनियम ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए एक व्यापक ढाँचा प्रदान करता है:

  • स्वपहचान का अधिकार
  • भेदभावनिषेध शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में
  • राष्ट्रीय परिषद (NCTP) की स्थापना
  • स्वास्थ्य सुविधाओं और बीमा कवरेज की व्यवस्था

() ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) नियम, 2020

इन नियमों ने प्रमाण-पत्र जारी करने की प्रक्रिया, शिकायत निवारण और कल्याण योजनाओं को और स्पष्ट किया।

() अन्य पहल

  • निर्वाचन आयोग (2009) ने मतदाता पंजीकरण में ‘अन्य’ श्रेणी जोड़ी।
  • कर्नाटक उच्च न्यायालय (2024) ने जन्म प्रमाण पत्र में नाम व लिंग परिवर्तन का अधिकार सुनिश्चित किया।

जनसांख्यिकीय और सामाजिक परिप्रेक्ष्य

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 4.8 मिलियन ट्रांसजेंडर हैं। इनमें से अधिकांश को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आवास जैसी बुनियादी सेवाओं तक समुचित पहुँच नहीं है।
साक्षरता दर मात्र 56.1% है, जबकि राष्ट्रीय औसत 74% है।
अध्ययनों से पता चलता है कि लगभग 92% ट्रांसजेंडर रोजगार से बाहर हैं (NHRC 2018)।

प्रमुख चुनौतियाँ

() सामाजिक बहिष्कार और कलंक

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को पारिवारिक अस्वीकृति, उत्पीड़न और हिंसा का सामना करना पड़ता है। कई को अपने ही परिवार और समाज से बेदखल होना पड़ता है।

() शिक्षा और कौशल विकास

लैंगिक-संवेदनशील पाठ्यक्रम और नीतियों की कमी के कारण शिक्षा प्राप्ति दर कम है।

() स्वास्थ्य सुविधाएँ

  • लिंग-पुष्टि उपचार महँगे (₹2–5 लाख) हैं।
  • बीमा योजनाओं में इनका सीमित कवरेज है।
  • मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।

() रोजगार और आर्थिक अवसर

ILO (2022) के अनुसार, 48% ट्रांसजेंडर बेरोज़गार हैं। कार्यस्थल पर भेदभाव और लैंगिक-तटस्थ सुविधाओं का अभाव उनकी स्थिति को और खराब करता है।

() कानूनी पहचान और दस्तावेज़

हालाँकि 2019 का अधिनियम स्व-पहचान की गारंटी देता है, लेकिन प्रमाणन प्रक्रियाएँ जटिल और कभी-कभी अपमानजनक होती हैं।

() वित्तीय सेवाओं तक पहुँच

RBI (2024) ने संयुक्त खाते की अनुमति दी, लेकिन संस्थागत खामियों और सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण इसका लाभ सीमित है।

  1. सरकारी पहल और कल्याणकारी योजनाएँ
  • SMILE योजना और गरिमा गृह: पुनर्वास, शिक्षा, आजीविका और स्वास्थ्य सेवाएँ।
  • आयुष्मान भारत TG Plus: स्वास्थ्य बीमा और लिंग-पुष्टि उपचार का कवरेज।
  • राष्ट्रीय पोर्टल: योजनाओं व शिकायत निवारण तक आसान पहुँच।
  • दिव्यांग पेंशन योजना: अलग ‘ट्रांसजेंडर’ विकल्प।
  • गृह मंत्रालय (2022): जेलों में तृतीय-लिंग कैदियों की गोपनीयता सुनिश्चित करने का निर्देश।

राज्य पहलें

    • महाराष्ट्र – कॉलेजों में ट्रांसजेंडर सेल।
    • केरल – विश्वविद्यालय स्तर पर आरक्षण और छात्रावास।

भारत में ट्रांसजेंडर सशक्तीकरण के लिये क्या उपाय किये जाने चाहिये?

  • कानूनी ढाँचा: ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 को शिकायत निवारण सेल की स्थापना, आवेदनों के लिये एक केंद्रीय डिजिटल पोर्टल, ऑडिट आयोजित करके और पुलिस, स्वास्थ्य एवं शिक्षा अधिकारियों को ट्रांसजेंडर अधिकारों और लैंगिक संवेदनशीलता पर प्रशिक्षण देकर पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिये।
  • आर्थिक सशक्तीकरण: लैंगिक-समावेशी नीतियों, विविधता-आधारित नियुक्तियों, वित्तीय योजनाओं और उद्यमिता सहायता को बढ़ावा दिया जाए। टाटा स्टील के विविधता कार्यक्रम जैसे सफल कॉरपोरेट मॉडलों का विस्तार किया जाए।
    • विश्व बैंक की एक रिपोर्ट (2021) के अनुसार, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को कार्यबल में शामिल करने से भारत के GDP में 1.7% की वृद्धि हो सकती है।
  • सामाजिक सेवाओं तक पहुँच: विद्यालयों और महाविद्यालयों में समावेशी नीतियाँ लागू की जाएँ, शिक्षकों का प्रशिक्षण किया जाए, बुलिंग और भेदभाव को रोका जाए, परामर्श सेवाओं का विस्तार किया जाए, लिंग-तटस्थ शौचालय सुनिश्चित किये जाएँ और ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों के लिये सहपाठी एवं शिक्षक-समर्थन को बढ़ावा दिया जाए।
    • लिंग-पुष्टिकरण उपचारों के लिये बीमा कवरेज सुनिश्चित किया जाए, समर्पित क्लीनिक स्थापित किये जाएँ, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया जाए तथा स्वास्थ्य प्रदाताओं के लिये संवेदनशीलता प्रशिक्षण आयोजित किया जाए।
  • जागरूकता अभियान: लैंगिक संवेदनशीलता कार्यक्रम चलाए जाएँ, विविध मीडिया प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहित किया जाए, कूवगम उत्सव जैसे सांस्कृतिक आयोजनों का समर्थन किया जाए और और कलंक को कम करने के लिये ’आई एम ऑल्सो ह्यूमन’ जैसी मुहिमों को बढ़ावा दिया जाए।

तुलनात्मक दृष्टि

कई देशों ने ट्रांसजेंडर अधिकारों की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं।

  • नेपाल: 2007 में ही थर्ड जेंडर मान्यता दी।
  • पाकिस्तान: ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन एक्ट (2018)।
  • अमेरिका और यूरोप: कई राज्यों में समलैंगिक विवाह और लिंग-पुष्टि उपचारों की कानूनी मान्यता।

भारत ने भी कानूनी ढाँचा खड़ा किया है, लेकिन सामाजिक स्वीकृति और प्रभावी कार्यान्वयन में अभी भी लंबा रास्ता तय करना है।

आगे की दिशा

() कानूनी ढाँचे को सशक्त करना

  • शिकायत निवारण तंत्र को मज़बूत करना।
  • डिजिटल पोर्टल के माध्यम से प्रमाणन प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाना।
  • पुलिस और प्रशासन को संवेदनशीलता प्रशिक्षण देना।

() आर्थिक सशक्तीकरण

  • निजी क्षेत्र में विविधता-आधारित भर्ती को बढ़ावा।
  • उद्यमिता व कौशल विकास योजनाओं में प्राथमिकता।
  • कॉरपोरेट मॉडल (जैसे टाटा स्टील) का विस्तार।

() शिक्षा और सामाजिक सेवाएँ

  • लिंग-समावेशी पाठ्यक्रम और शिक्षकों का प्रशिक्षण।
  • ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति, छात्रावास और परामर्श सेवाएँ।
  • लिंग-तटस्थ शौचालय और कैंपस में समान सुविधाएँ।

() स्वास्थ्य सेवाएँ

  • लिंग-पुष्टि उपचारों का बीमा कवरेज अनिवार्य।
  • समर्पित क्लीनिक और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार।

() जागरूकता और सामाजिक स्वीकार्यता

  • मीडिया और सांस्कृतिक आयोजनों के माध्यम से सकारात्मक प्रतिनिधित्व।
  • सामाजिक अभियानों जैसे ‘I am also human’ को प्रोत्साहन।

निष्कर्ष

भारत में ट्रांसजेंडर अधिकारों की दिशा में बीते दशक में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। NALSA निर्णय (2014) और ट्रांसजेंडर अधिनियम (2019) ऐतिहासिक मील-पत्थर हैं। किंतु कानूनी सुरक्षा और नीतिगत प्रयास तब तक सार्थक नहीं होंगे जब तक सामाजिक स्वीकार्यता, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक अवसरों तक समान पहुँच सुनिश्चित नहीं की जाती।
एक समावेशी और संवेदनशील समाज की दिशा में भारत को कानूनी गारंटी + सामाजिक संवेदनशीलता + आर्थिक अवसर की तिहरी रणनीति अपनानी होगी। तभी वास्तविक अर्थों में ट्रांसजेंडर अधिकारों की सुरक्षा और सशक्तिकरण संभव होगा।

 

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