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जातिगत जनगणना

जातिगत जनगणना का मुद्दा भारत में फिर चर्चा में है। अभी तक भारत की जनगणना में अनुसूचित जातियों (SCs) और जनजातियों (STs) के आँकड़े शामिल होते हैं, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs) और अन्य जातियों की जानकारी नहीं दी जाती।

1. जनगणना बनाम सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC)

  • जनगणना: 1881 से शुरू, सरकार और नीति निर्माण के लिए आधार, परंतु यह गोपनीय और विश्लेषणात्मक रूप से सीमित है।

  • SECC: 2011 में हुई, जाति व आर्थिक स्थिति का डेटा जुटाया गया, पर अभी तक जाति संबंधी कच्चे आँकड़े सार्वजनिक नहीं हुए।

2. जातिगत जनगणना की ज़रूरत क्यों?

  • सामाजिक असमानता दूर करने हेतु: जाति आधारित भेदभाव अब भी प्रचलित है।

  • संसाधनों का न्यायसंगत वितरण: OBC व अन्य समूहों की वास्तविक संख्या और स्थिति जाने बिना समानता संभव नहीं।

  • नीतियों की निगरानी: आरक्षण जैसी योजनाओं की प्रभावशीलता मूल्यांकन के लिए सटीक आँकड़े आवश्यक हैं।

  • समाज की व्यापक तस्वीर: जाति भारतीय समाज का महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक पहलू है।

3. विरोध में तर्क

  • जातिवाद को पुष्ट करने का डर: विरोधियों का मानना है कि इससे जातिगत पहचान और भेदभाव बढ़ेगा।

  • तकनीकी कठिनाइयाँ: हजारों जातियों और उपजातियों को परिभाषित करना जटिल है।

  • सामाजिक विभाजन: इससे समाज में अलगाव और ध्रुवीकरण बढ़ने की आशंका है।

4. सरकारी रुख और चुनौतियाँ

  • सरकार ने 2021 में स्पष्ट किया कि वह केवल SC/ST की गिनती करेगी, OBC की नहीं।

  • 2011 SECC के जातिगत डेटा को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।

5. आगे की राह

  • जिला-स्तरीय स्वतंत्र अध्ययन और टेक्नोलॉजी जैसे AI का इस्तेमाल डेटा विश्लेषण में किया जा सकता है।

  • OBC का उपवर्गीकरण कर कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों को न्याय देना जरूरी है (जैसे कि रोहिणी आयोग की सिफारिशें)।

निष्कर्ष

जातिगत जनगणना के पक्ष और विपक्ष में ठोस तर्क हैं, लेकिन OBCs और अन्य समूहों की सटीक जनसंख्या जानकारी सामाजिक न्याय, समावेशी नीतियों और न्यायपूर्ण विकास के लिए अनिवार्य है। सरकार को संतुलित दृष्टिकोण अपनाकर निर्णय लेना चाहिए।


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